Thursday, January 6, 2011















ढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे
रंगने को कुछ कवितायेँ
सभी शब्द कच्चे रंगों से
कोई मन को न भाये

लिखा बहुत कुछ सब बेमानी
बिना प्राण के तन जैसा
ऋतू बसंत आने से पहले
पतझड़, निर्जन वन जैसा

मन के घाव बहे न जबतक
नैनों के गलियारे से
गालों से होकर होठों को
कर जाएँ जब खारे से

तब उगती है कोई कविता
तब बनता है कोई गीत
सदियों से सच्चे लेखन की
एक यही एकलौती रीत